रात कल कंगन खनकने की वजह से
नव वधू नजरे बचाकर चल रही थी
कोयले का आंच से परिचय हुआ था
देह सारी तमतमा कर जल रही थी
देह पर लिक्खी हुई थी छेड़खानी और शरारत
और उलझे केश चुगली कर रहे थे मौन होकर
भाल से भटकी हुई बिंदी गवाही दे रही थी
मूक सहमति दी पलक ने लाज के परदे गिराकर
इक झिझक ने लांघ ली दहलीज कल से
आंख में फिर आस मीठी पल रही थी
मौन बिल्कुल मौन हो चुपचाप सिरहाने खड़ा था
शब्द बनकर आरति स्वर कान में रस घोलते थे
वह अधर ऐसे सटे दूजे अधर से क्या बताये
जो अधर इक दूसरे से अब तलक न बोलते थे
रात की रंगत गुलाबी हो गई कल
चांदनी सिंदूर सा कुछ मल रही थी
तार वीणा के छुवे पहली दफा जैसे किसीे ने
कसमसाहट की उसी धुन पर सवेरे झूमती है
और पसरा है सुकूँ चेहरे पे उसके बेतहाशा
जीत जैसे जीतकर भी हार का मुख चूमती है
जिंदगी की सेज में करवट नयी थी
अग्नि सारी बर्फ होकर गल रही थी
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